विश्व की सभ्यता और संस्कृति उन विचारशील व्यक्तियों के चिंतन और चेतना से आगे बढ़ती है, जो समाज के प्रचलित नियमों और परंपराओं के विपरीत जाकर नए विचारों से समाज को दिशा देते हैं या नए रास्तों की खोज करते हैं। यदि बीसवीं सदी के मध्य तक मानव जाति की प्रगति में प्रमुख योगदान देने वाले प्रभावों पर ध्यान दिया जाए, तो विज्ञान के अलावा सबसे अधिक प्रभाव धर्म और साहित्य का देखा जा सकता है।
दरअसल, शताब्दी की शुरुआत में ही विज्ञान ने दुनिया में नया प्रवाह लाया। विशेषकर सूचना और प्रौद्योगिकी में क्रांतिकारी बदलाव ने जनसंचार को सर्वशक्तिमान बना दिया। जनसंचार का मुख्य उद्देश्य है लोगों के साथ सेतुबंध स्थापित करना। प्रारंभिक अवस्था में केवल समाचार पत्र या मुद्रित माध्यमों के माध्यम से यह कार्य संपन्न होता था, बाद में इसमें दृश्य और श्रव्य माध्यम जुड़ गए और यह साहित्य, गीत-नाटक से लेकर सिनेमा, वृत्तचित्र आदि तक विस्तृत हो गया। बड़े पैमाने पर जनसंख्या के लिए पढ़ाई और ज्ञान का सहज माध्यम बन गए रेडियो और टेलीविजन। सिनेमा भी कई विषयों को समेट नहीं पा रहा था, उसे इन दोनों माध्यमों ने समेट लिया। भविष्य की दुनिया में दृश्य और श्रव्य—इन दोनों जनसंपर्क माध्यमों की भूमिका की महत्वपूर्णता शायद भूपेन हाजरिका ही सबसे पहले समझ पाए।
यदि किसी महापुरुष के जीवन को एक अनिवार्य निरंतरता के रूप में कल्पना करें, तो आधुनिक असम के दो महान कलाकार ज्योतिप्रसाद और विष्णु राभा के मामले में यह निरंतरता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इस ज्योति-विष्णु की अनन्य उत्तराधिकारी थे भूपेन हाजरिका।
विष्णु राभा ने कहा था-‘विश्व में जिन महापुरुषों का जन्म हुआ, उनमें तीन महापुरुष सृजन के प्रतीक हैं। वे हैं—श्रीकृष्ण, श्रीमंत शंकरदेव और लियोनार्दो दा विंची।’ उसी तर्ज पर मैं आधुनिक असम के तीन महापुरुषों को सृजन के प्रतीक के रूप में देखता हूँ। वे हैं क्रमश:—ज्योतिप्रसाद, विष्णु राभा और भूपेन हाजरिका। भूपेन हाजरिका का सबसे प्रभावशाली हथियार उनका सुनहरा स्वर था। उसी स्वर के माध्यम से उन्होंने असम और देश की सीमाओं को पार करते हुए विश्व के लोगों के बीच प्रेम और भ्रातृत्व का सेतु बनाया।
जाति, धर्म, संप्रदाय या विश्व के रंगभेद की संकीर्णताओं को पार करते हुए भूपेन हाजरिका के गीतों में मानवता का जयगान गूंजता था, जो मानवता की शिक्षा श्रीमंत शंकरदेव द्वारा रचित बोरगीत में भी मौजूद था और ज्योति-विष्णु के चिंतन में भी। पिता के कार्य जीवन की प्रेरणा से भूपेन हाजरिका ने अपने बचपन और किशोरावस्था के साल असम के विभिन्न स्थानों में बिताए, वहाँ की विविधता और विशेषताओं को अनुभव किया। उन्होंने शदिया (जन्मस्थान) से लेकर धुबरी (प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा) तक लोगों को देखा और उनके साथ संपर्क किया।
1942 में भारत के स्वतंत्रता संग्राम के आरंभ से ही भूपेन हाजरिका ने ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’ में अध्ययन के दौरान स्वतंत्रता का प्रतिबिंब देखा। एक पत्रकार बनने के सपने के साथ, उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की, साहित्य या सुंदर कला में नहीं। इसी दौरान उन्होंने ‘अमृतबाजार पत्रिका’ में छात्र समालोचक के रूप में अपनी शुरुआत की।
1949 में डाक्टरेट अध्ययन के लिए वे अमेरिका के ‘कोलंबिया विश्वविद्यालय’ गए। वहीं उन्होंने न्यूयॉर्क टेलीविजन कार्यक्रमों में भाग लिया और ‘भारतीय छात्र संघ’ के मुखपत्र ‘न्यू इंडिया’ का संपादन भी किया। 1952 में भूपेन हाजरिका ने डाक्टरेट प्राप्त कर अपने स्वतंत्र भारत लौट आए।
अमेरिका में रहते हुए उन्होंने 1950 में प्रियंबदा पटेल से विवाह किया। उनके पास सुख-समृद्धि का अवसर था, लेकिन उन्होंने निश्चित रूप से अपने देश भारत लौटने और इसे ‘नई आज़ादी’ के अनुसार विकसित करने का निर्णय लिया।
स्वदेश लौटने के बाद भूपेन हाजरिका ने पूरी तरह खुद को लोगों के साथ संबंध स्थापित करने में समर्पित कर दिया। उन्होंने माइक्रोफोन, रेडियो, ग्रामोफोन रिकॉर्ड, मोशन पिक्चर कैमरा, टेलीविजन, सेलुलॉइड और अपनी कलम का उपयोग करते हुए संगीत, गीत और साहित्य के माध्यम से लोगों के दिलों में अपनी
जगह बनाई।
भूपेन हाजरिका जैसी प्रतिभा दुर्लभ थी, जो गीत-साहित्य की रचना से लेकर संगीत, गायन और प्रस्तुति तक समान रूप से दक्ष थी। इस गायन शैली की गहराई इतनी व्यापक थी कि, ‘रुदाली’ फिल्म की शूटिंग के दौरान फिल्म की मुख्य अभिनेत्री (डिम्पल कपाड़िया) ने शूटिंग रुकवाने का अनुरोध किया और कहा कि फिल्म में जिस भी आवाज का उपयोग किया जाए, (इस फिल्म के लिए दिल हुम हुम करे वही गीत के दो संस्करण रिकॉर्ड किए गए थे – एक लता मंगेशकार की आवाज़ में और दूसरा भूपेन हाजरिका की आवाज़ में) परंतु शूटिंग के समय केवल भूपेन दा के संस्करण ही बजाया जाए। और डिम्पल कपाड़िया ने कहा कि – ‘लता जी का गीत अनुपम है, फिर भी भूपेन दा की आवाज़ सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं।’ पहले ही उल्लेख किया है कि महापुरुषों की सोच अक्सर धारा के विपरीत होती है। भूपेन हाजरिका के शुरुआती संगीत में भी इसकी झलक मिलती है। ऐसे स्रष्टा कभी-कभी अपने समय से बहुत आगे निकल जाते हैं और समकालीन समाज उस समय उनकी गहराई को समझ नहीं पाता। भारतीय सिनेमा के इतिहास में भी कई ऐसी फिल्मों की नाम भी सामने आएंगे जिन्हें दशकों ने स्वीकार नहीं किया था। क्योंकि वे समय से दशकों पहले बनी थी। लेकिन आज वे फिल्में क्लासिक कहलाती हैं। गुरु दत्त की फिल्में इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं। क्या केवल गीत और सिनेमा ही? नहीं, जनसंपर्क माध्यमों के अन्य क्षेत्रों में भी भूपेन हाजरिका ने अद्भुत दक्षता दिखाई। अति व्यस्त रहते हुए भी वे ‘आमार प्रतिनिधि’, ‘प्रासंगिक’, ‘आमार देश’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘अग्रदूत’, ‘सादिन’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तंभ लिखते थे। समग्र रूप से युगांतरकारी कलाकार भूपेन हाजरिका ने अपने जीवन का समस्त योगदान इंसान से इंसान के बीच सेतुबंधन की जिम्मेदारी के साथ ही दिया। इसके अतिरिक्त भी भूपेन हाजरिका ने मुख्यत: अपने संगीत-प्रदर्शनों के माध्यम से सजीव रूप में लोगों तक पहुँचते थे।
– विद्युत कुमार भूईया

