आज हम व्रत करने वालों को ढकोसला, रूढ़िवादी ,अनपढ़, छोटी बुद्धि वाले , न जाने क्या-क्या बोल खुद बड़प्पन का एहसास लिए और भी छोटे होते जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि हमें व्रत की मर्यादा,उसका प्रभाव, उत्साह का पता नहीं होता। एक-एक व्रत के पीछे धार्मिक, आध्यात्मिक, भौगोलिक, वैज्ञानिक ,भावनात्मक कारण होते हैं। हमारे सनातन धर्म में भले हम परम्परागत तरीके से व्रत करते हो पर उसका मूल स्रोत वैज्ञानिक है। जाने अनजाने हम अपने शरीर में कुछ न खाकर या संयमित अनाज विहीन आहार ले कर शरीर को रोगयुक्त कोशिकाओं से मुक्त कर देते हैं। व्रत के दिनों में हमारे शरीर के पाचन तंत्र को आराम तो मिलता ही है , पाचन-तंत्र सुधरता भी है,साथ ही शरीर में न चाहते पदार्थ से भी मुक्ति मिल जाती है। व्रत करना शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक शुद्धि का माध्यम भी है और शुद्धिकरण का एक प्राचीन और आध्यात्मिक तरीका भी।
इसके पीछे होते भौगोलिक कारण हम इस तरह से समझ सकते हैं , बदलते मौसम के साथ हमारे शरीर का सामंजस्य,तादम्यता हमारी अंदरूनी शक्ति के साथ बढ़ती घटती है, जो व्रत करने से अनायास समान्य बन जाती है। जैसे शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष याने एकादशी से पूर्णिमा अथवा अमावस्या तक समुद्र में ज्वारभाटा बढ़ जाता है। लहरें बहुत ऊंची उठती हैं। चंद्रमा पृथ्वी के निकट आ जाता है गुरुत्वाकर्षणक के कारण चन्द्रमा जल को आकर्षित करता है। हमारे शरीर में 90% जल ही है ,जो उस दौरान सोख लिया जाता है अथवा यूं कहें कि चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है ,रोग की संभावना भी बढ़ जाती है । उन दिनों व्रत करना शरीर के लिए फायदे कारक होता है । यह शरीर को चंद्रमा के बढ़ते गुरुत्वाकर्षण प्रभाव से बचाकर जल संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। इन्हीं दोनों हम एकादशी का व्रत करते हैं जो शरीर के लिए लाभदायक होता है। हमारा शरीर भी आखिर मशीन की तरह ही है, ज्यादा खाने से ज्यादा शक्ति नहीं बल्कि शक्ति ही क्षीण हो जाती है । व्रत हो तो खाने में भी हमारा संयम बना रहता है, जिससे आंतरिक शक्ति बढ़ती है । अनुशासन और आत्म नियंत्रण बढ़ता है । यह केवल धार्मिक कार्य नहीं बल्कि शरीर मन को स्वस्थ रखने प्रकृति के संतुलन के साथ तालमेल बैठाने का एक प्राचीन, वैज्ञानिक , आध्यात्मिक तरीका है। यह सारी बातें हम हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी की दिनचर्या, उनका खानपानम, संयम, मर्यादित जीवन उनकी कार्य क्षमता देख समझ भी सकते हैं । उनके व्यक्तित्व में शारीरिक और मानसिक संयम दोनों दिखाई पड़ते हैं । उनका संपूर्ण जीवन ही संयमी व्रत है ।
अब बात करते हैं वैज्ञानिक कारण की , शोध से पता चलता है कि एकादशी व्रत करने से, अथवा किनंसी भी व्रत में उपवास करने से कैंसर जैसे कोशिकाओं का बढ़ना कम हो सकता है, वैसे कैंसर की कोशिकाएं हम सबके शरीर में रहती ही हैं, किंतु जब किसी भी कारण से ये एक्टिवेट हो जाती है तो ज़्यादा कैंसर जनित कोशिकाओं का निर्माण होने लगता है ,तब ये शरीर के लिए हानिकारक बनती जाती है ।व्रत करने से या भूखे रहने से ये हानिकारक कोशिकाएं जीवित नहीं रहती अथवा धीमी गति से बढ़ती है।जाने अनजाने हम इस भयंकर बीमारी से जूझने में भी कामयाब हो जाते हैं । मेटाबॉलिज्म बेहतर होता है, शरीर स्वस्थ कोशिकाओं का भी निर्माण करता है । इसीलिए व्रत शरीर को सुरक्षित रखने का विज्ञान है।
हमारे सनातन धर्म में चार नवरात्र होते हैं जिसमें दो नवरात्र प्रायः सभी जानते हैं और पालन भी करते हैं। एक गर्मी में आता है अप्रैल माह में दूसरा बारिश के बाद सितंबर/अक्टूबर में, जब शरीर के अस्वस्थ होने की संभावना बढ़ जाती है। इन दोनों हम ज्यादा व्रत रखते हैं। इसीलिए हमारे सनातन धर्म में पर्यावरण, शरीर, बुद्धि सबको लक्ष्य करके व्रत भी रखे गए हैं। साथ ही हमारी मान्यताओं में मंत्रों का भी बहुत महत्व है ,जिसका नियमित पाठ/उच्चारण हमारे शरीर को डिटॉक्स कर देता है । जैसे” ओम नमो नारायणाय” एक ऐसा ही मंत्र है । इसके सिवाय गायत्री मंत्र का भी प्रयोग हुआ है। वैज्ञानिकता से इसे प्रमाणित भी किया गया है । गायत्री मंत्र बौद्धिक क्षमता बढ़ाती है, इससे दिमाग तेज होता है, शांत होता है और हमारे शरीर में साकारात्मक बदलाव भी आता है ।
हमारे ऋषि -मुनि आध्यात्मिक गुरु के साथ साथ वैज्ञानिक भी हुआ करते थे, मतलब उनमें ये सारी क्षमताएं मौजूद होतीं थीं। सिर्फ भारत के वैज्ञानिक ही नहीं, विदेश में भी इस मंत्र पर रिसर्च हो चुका है कि गायत्री मंत्र से एक सेकंड में एक लाख से ज्यादा साउण्ड वेभ (wave)जेनरेट होता है और यह सबसे सशक्त मंत्र है ।
हमलोगों ने जानवरों की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया , उनके शरीर में बीमारी होने से वे खाना ही छोड़ दते हैं और इसी तरह वे ठीक भी हो जाते हैं । हम मनुष्य को उनसे सीख लेने की जरूरत है। व्रत का नाम दे कर भी हम भूखा नहीं रह पाते।
अब हम आध्यात्मिक पहलू की तरफ जाते हैं व्रत का अर्थ सिर्फ खान पान से नहीं बल्कि इसे हम संयम, अनुशासन ,मर्यादा भी कह सकते हैं। आज के समय में प्राय: बिना किसी भेदभाव के स्त्री- पुरुष मित्र होते हैं ,साथ काम करते हैं, साथ रहते हैं,यहां भी मर्यादा तो आ ही जाती है। अगर हम लक्ष्मण रेखा का पालन करते हैं तो कोई मुश्किल नहीं वरन सदा उलझनों से घिरे रहते हैं, शारीरिक और मानसिक दोनों ।
आज हर संबंध में तृप्ति की आवश्यकता है ,जो व्रत के बिना नहीं आती। व्रत उपवास करने वाले और बिना नियंत्रण के किसी भी वक्त खाने वालों का शरीर के साथ मन का भी तालमेल सुदृढ़ नहीं होता । व्रत उपवास करने वाले लोगों मे शांति हमेशा दिखाई देती है बनिस्पत के ऐसे लोगों में जो हमेशा कभी भी खाते रहते हैं । जैसे आहार के लिए नियम होता है वैसे ही विहार के लिए भी नियम होना चाहिए। यह हम व्रत के माध्यम से ही जान सकते हैं । चलिए एक उदाहरण से हम समझते हैं।
रामायण का एक प्रसंग है। राम जी, सीता और लक्ष्मण के साथ वन में शांति से रह रहे हैं तब ही वहां शूर्पनखा का आगमन होता है जो वासना से जकड़ी हुई है । राम जी वनवास में भी सुखी हैं,शांत हैं, क्योंकि वे ‘एक पत्नी व्रत ‘से बंधे हैं । शूर्पनखा जो किसी भी व्रत नियम, मर्यादा ,आहार विहार से नहीं बंधी हैं, सबसे ज़्यादा तन, मन दोनों से भूखी है । सीता जी भी सुखी हैं क्योंकि वे ‘पतिव्रत धर्म’ से बंधी हैं। लक्ष्मण जी भी सुखी हैं,शात हैं क्योंकि वे ‘संयम व्रत’ से बंधे हैं । जिनका कोई व्रत नहीं, कोई नियम नहीं, वे खुद तो दुखी , असंतोषी हैं दूसरों को भी दुख देने वाली /देन वाले होते हैं। इसी कारण शूर्पनखा को अपनी करनी का फल भुगतना पड़ा था यह एक आध्यात्मिक पहलू है । इसीलिए व्रत सिर्फ शारीरिक संयमता ही नहीं, मर्यादा में रहना भी सीखाता है।
यही कारण है कि सदियो से भारत अपने संतों , ऋषि -मुनियों एवं अपनी सनातन परंपरा के कारण विश्व गुरु था और अब पुनः होने के कगार पर खड़ा है ।
डा.नलिनी पुरोहित
वडोदरा ,गुजरात ।

