- श्रावण मास में शारदापीठाधिश्वर शंकराचार्य की उपस्थिति में जारी है ‘गागर में सागर’ पर प्रवचन
द्वारका। श्रावण मास में ‘गागर में सागर’ प्रवचन की अगली कड़ी में सोमवार को शंकराचार्य सदानंद सरस्वती ने ‘धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा’ पर चर्चा करते हुए कहा कि आचार्य शंकर दिव्यदृष्टि से सम्पन्न थे और बोधविग्रह थे। उन्होंने याज्ञवल्क्य, मरीचि, अत्रि, अगस्त्य, पुलस्त्य, वशिष्ठ, गर्ग, गौतम, कात्यायन, अंगिरा, भृगु, नारद, संवर्त तथा शंख-लिखित आदि धर्मशास्त्रकारों के निर्देशानुसार जीवन-यापन करने का और तपस्वी होने का निर्देश दिया। आचार्य में जो कुछ विशेषताएं थीं, वह सब कुछ भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्ण एवं ऋषि महर्षियों के समान धर्माचरणरूपी तप, योग, ज्ञान, भक्ति-साधना आदि से ही उपार्जित थीं । शास्त्रों में बार-बार कहा गया है कि जैसे ताला खोलने के लिये चाबी होती है और जैसे शरीर को पुष्ट करने के लिये केवल मुंह में भोजन डाला जाता है, सभी अंगों पर नहीं, साथ ही जैसे वृक्ष की जड़ में जल द्वारा सींचा जाता है, उसके तने, टहनी, पत्ते तथा फूल इत्यादि पर जल नहीं डाला जाता, वैसे ही अपने तथा संसार को सुखी बनाने के लिये धर्मशास्त्रों के अनुसार धर्म और ब्रह्म की उपासना एवं अर्चना करनी चाहिये न कि अनर्थकारी अर्थ और विषयभोगों की। कुछ लोग सुखप्राप्ति के लिये धर्म को छोड़कर धन बटोरना चाहते हैं, विषय-भोगों में रमते हैं, परन्तु जैसे समुद्र के खारे पानी से प्यास नहीं बुझती, जैसे आग में घी डालने से वह और धधकती है, वैसे ही धन और विषयभोगो से मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती, उससे काम, लोभादि बढ़ते हैं। अत: ऋषि, मुनि, संत, महात्मा तथा धर्मात्मा आदि उससे दूर रहते हैं।